प्रतिष्ठा, परंपरा और प्रथा… ये शब्द अब सिर्फ़ पुरानी फिल्मों के डायलॉग बनकर रह गए हैं।
समीक्षा सिंह
आज का युवा तेज़ी से बदलती दुनिया के साथ कदम से कदम मिलाकर चल रहा है, लेकिन इसी दौड़ में कहीं न कहीं हमारी भारतीय संस्कृति और सभ्यता पीछे छूटती जा रही है। सबसे बड़ा सवाल यही है कि हमारी यह सांस्कृतिक गिरावट किस वजह से हो रही है — क्या यह पश्चिमी प्रभाव है या फिर डिजिटल दुनिया की गिरफ्त?
डिजिटलीकरण ने हमारे जीवन को आसान ज़रूर बना दिया है, लेकिन इसके साथ ही यह हमारे पारिवारिक और सांस्कृतिक मूल्यों को चुपचाप निगलता जा रहा है। पहले बच्चों को बाहर खेलने मे मज़ा आता था , अब वे मोबाइल और टैबलेट में व्यस्त हैं।
त्यौहार अब घर की रौनक का कारण नहीं, इंस्टाग्राम स्टोरी का हिस्सा बनकर रह गए हैं। तकनीक ने संवाद को सहज बनाया है, लेकिन संबंधों को कमज़ोर।
साथ ही, पश्चिमी सभ्यता का बढ़ता प्रभाव भी हमारे युवाओं की सोच और जीवनशैली को बदल रहा है। अब अंग्रेज़ी भाषा में बात करना आज के दुनिया की पहचान बन चुका है और भारतीय परिधान, रीति-रिवाज या पारंपरिक सोच को ‘बैकवर्ड’ समझा जाने लगा है।
असल में, न तो तकनीक गलत है, न ही विदेशी संस्कृति। दोष उस सोच का है जो हमें अपनी पहचान से कटने पर मजबूर कर रही है। युवाओं को यह सिखाना ज़रूरी है कि नयी सोच का मतलब अपनी जड़ों को भूलना नहीं होता। तकनीक का इस्तेमाल ज़रूर करें, लेकिन उस तकनीक से अपने संस्कारों को मिटने न दें।
आज ज़रूरत है कि हम अपने परिवार में बच्चों को भारतीय भाषाओं, लोक कथाओं और रीति-रिवाज़ों से परिचित कराएं। दुनिया से सीखना अच्छी बात है, लेकिन अपनी पहचान खोकर नहीं। हमारी संस्कृति की ताकत इसकी विविधता, गहराई और सहनशीलता में है। उसे मिटने न दें… उसे अपनाएं, उसे जिएं और अगली पीढ़ी को सिखाएं।