अवधेश कुमार
18 वीं लोक सभा के अध्यक्ष के निर्वाचन के दौरान और उसके बाद का दृश्य निश्चित रूप से देश को एक हद तक राहत देने वाला था। आक्रामक मोर्चाबंदी के बाद विपक्ष ने संसद में मत विभाजन की मांग नहीं की। इस कारण ओम बिरला का दूसरी बार लोकसभाध्यक्ष के रूप में निर्वाचन प्रस्ताव ध्वनिमत से पारित हुआ। विपक्ष अपने पूर्व के तेवर के अनुरूप यदि के. सुरेश और ओम बिरला के बीच मतदान पर अड़ता तो तस्वीर दूसरी होती। हालांकि संख्या बल के आधार पर ओम बिरला का निर्वाचन निश्चित था, लेकिन विपक्ष भी ताकत दिखाना चाहता था।
वास्तव में 18वीं लोक सभा में शपथ ग्रहण के समय से विपक्ष का तेवर बता रहा है कि वह सरकार को आसानी से काम करने देने की मन:स्थिति में नहीं है। आईएनडीआईए के सारे सांसद गांधी जी की प्रतिमा के पुराने स्थल से हाथों में संविधान की प्रति लिए जिस तरह नारा लगाते आगे बढ़े वह चिंतित करने वाला दृश्य था। कम से कम सांसदों के शपथ ग्रहण के अवसर को प्रदर्शनों से दूर रखा जा सकता था। सरकार ने अभी ऐसा कोई कदम नहीं उठाया है जिसके लिए विपक्ष को इस तरह विरोध की एकजुटता प्रदर्शित करनी पड़े।
विरोध के लिए आगे पूरा अवसर बना हुआ है। संसद में बजट आना है और भी कई विधेयक आने वाले हैं, उन सब पर विपक्ष अपना तेवर दिखा सकता था, दिखाएगा भी। इसी तरह स्वयं विपक्ष का अपना एजेंडा है जो समय-समय पर संसदीय नियमों का लाभ उठाते हुए प्रस्तुत करने की कोशिश करेगा। 18वीं लोक सभा की शुरूआत में विपक्ष ने अपनी रणनीति के तहत ही आक्रामक चरित्र प्रदर्शित किया है। पहले भर्तृहरि मेहताब को प्रोटेम स्पीकर बनाए जाने का विरोध हुआ। कांग्रेस ने यह भी कह दिया कि उनकी पार्टी मेहताब को सहयोग नहीं करेगी। उससे भय पैदा हुआ लेकिन सभी कांग्रेसी सांसदों ने अंतत: मेहताब की अध्यक्षता में ही शपथ ग्रहण किया।
इसके पूर्व कभी प्रोटेम स्पीकर को लेकर इस तरह विरोध हुआ हो इसके रिकॉर्ड अभी तक सामने नहीं आए हैं। कांग्रेस की मांग थी कि के. सुरेश आठ बार के सांसद हैं। इसलिए उन्हें प्रोटेम स्पीकर बनाना चाहिए। सरकार का कहना था कि के. सुरेश एक बार सांसद नहीं रहे हैं जबकि मेहताब लगातार सात बार सांसद रहे हैं। यह विषय असहमति का है। संविधान में कहीं इसका उल्लेख नहीं है कि प्रोटेम स्पीकर किसे बनाया जाए। उसके बाद से विपक्ष ने ऐसा कोई संकेत नहीं दिया है कि वह लोक सभा चुनाव के दौरान उठाए गए मुद्दों और अपनाए तेवरों से पीछे हट रहा है। आप ओम बिरला के लोकसभाध्यक्ष बनने के बाद दिए गए विपक्ष के नेताओं के भाषणों को देखिए तो काफी कुछ स्पष्ट हो जाएगा। राहुल गांधी ने कहा, ‘हम उम्मीद करते हैं कि आपके नेतृत्व में संविधान की रक्षा होगी। आप विपक्ष को पूरी तरह बोलने का अवसर देंगे जिससे आम जन की आवाज संसद में आ सके’। उन्होंने पूर्व लोक सभा में सांसदों के निलंबन पर भी कटाक्ष किया।
ठीक इसी तरह सपा के प्रमुख अखिलेश यादव ने भी लोकसभाध्यक्ष पर कटाक्ष किया। उन्होंने कहा, ‘आप सत्ता पक्ष को तो मौका देते ही हैं, लेकिन अब उम्मीद है कि विपक्ष को भी अवसर देंगे’। फिर उन्होंने भी भविष्य में सांसदों के निलंबन न होने की उम्मीद जताई। इसी तरह तृणमूल कांग्रेस के सुदीप बंदोपाध्याय एवं अन्य नेताओं के भाषण अध्यक्ष को भी दलीय राजनीति में घसीटने और उनको कठघरे में खड़ा करने वाले ही थे। अध्यक्ष के निर्वाचन के बाद सभी उन्हें धन्यवाद देते हैं, उनकी प्रशंसा करते हैं, और उनकी अध्यक्षता में संसद के संचालन में सहयोग करने का वादा करते हुए शुभकामना भी देते हैं। विपक्ष के भाषण में ये विषय थे किंतु उनकी धारा बिल्कुल अलग थी। इसके बाद राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू के संयुक्त सत्र के अभिभाषण को लेकर भी विपक्ष ने सरकार के साथ सहयोग या सहकार वाली भूमिका का संदेश नहीं दिया। आम आदमी पार्टी द्वारा अभिभाषण का बहिष्कार तथा शिवसेना उद्धव ठाकरे द्वारा समर्थन बताता है कि संसद को लेकर विपक्ष की राजनीति किस दिशा में जाने वाली है। शिवसेना-उद्धव ठाकरे के सांसद संजय राउत में कहा कि बहिष्कार बिल्कुल ठीक है? सरकार तानाशाही भरा रवैया अपनाती है और उसमें राष्ट्रपति का भी योगदान है।
राष्ट्रपति को दलीय राजनीति में घसीटना अन्य सभी घटनाक्रम से ज्यादा चिंतित करने वाला है। राष्ट्रपति देश के अभिभावक के तौर पर स्वीकार किए जाते हैं। हमारे देश में राष्ट्रपति संवैधानिक प्रमुख हैं पर उन्हें मंत्रिमंडल के निर्णय के अनुसार ही भूमिका निभानी पड़ती है। बावजूद विपक्ष राष्ट्रपति पर इस तरह के हमले से बचता रहा है। आपातकाल के दौरान फखरुद्दीन अली अहमद की भूमिका को छोड़ दें तो अभी तक संजय राउत की तरह राष्ट्रपति की आलोचना करने जैसा वक्तव्य सामने नहीं आया था। फखरु द्दीन अली अहमद के विरु द्ध भी विपक्ष को बोलने का मौका नहीं मिला था क्योंकि सभी जेल में डाल दिए गए थे।
राष्ट्रपति के अभिभाषण के बाद कांग्रेस सहित सभी विपक्षी नेताओं की प्रतिक्रियाएं देखें तो वे सरकार पर पूरी तरह हमलावर हैं। वैसे राष्ट्रपति अभिभाषण द्वारा सरकार ने भी स्पष्ट कर दिया कि वह अपनी पूर्व नीतियों पर ही आगे बढऩे वाली है यानी विपक्ष का कोई दबाव उसे अपने रास्ते से पीछे हटने या मुडऩे के लिए विवश नहीं कर सकता। वह हमले का जवाब प्रति हमले से देगी। वस्तुत: विपक्ष का आकलन है कि संविधान खत्म करने, आरक्षण खत्म करने और अन्य प्रकार के प्रधानमंत्री मोदी और सरकार विरोधी तेवरों से उन्हें चुनाव में लाभ मिला है। इसे आगे बनाए रखा गया तो वे सरकार को सत्ता से हटाने में सफल होंगे। विपक्ष की रणनीति बिल्कुल साफ है। देश में सरकार के हर समय अस्थिर होने का संदेश देना, इससे लगातार टकराव करते रहना, आरोप लगाते रहना तथा जब भी मौका आए सरकार को झकझोर कर गिराने का प्रयास करना। साफ है कि सरकार भी ईट का जवाब पत्थर से देने का संदेश दे रही है। इसमें हमें संसद के सुचारू रूप से संचालन या भविष्य में सत्ता पक्ष और विपक्ष के बीच राष्ट्र और जनता के हितों को लेकर स्वाभाविक सहयोग और समन्वय की कल्पना नहीं करनी चाहिए।