एकादशी जिसमें जल नहीं, पर भक्ति की धार बहती है
प्रियांश कुकरेजा
आज पूरे भारत में श्रद्धा, संयम और आत्मिक शुद्धि का पर्व निर्जला एकादशी पूरी भक्ति और आस्था के साथ मनाया जा रहा है, जिसे वर्ष की सबसे कठिन और पुण्यदायक एकादशी माना जाता है। यह व्रत ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की एकादशी को रखा जाता है और इसे ‘निर्जला’ इसलिए कहा जाता है क्योंकि इस दिन जल तक का सेवन नहीं किया जाता। यह व्रत उन श्रद्धालुओं के लिए विशेष महत्व रखता है जो पूरे वर्ष एकादशी नहीं रख पाते — मान्यता है कि निर्जला एकादशी का व्रत करने से वर्ष की सभी 24 एकादशियों का फल एक साथ प्राप्त होता है।
इस वर्ष यह व्रत 6 जून 2025, शुक्रवार को मनाया जा रहा है। एकादशी तिथि का प्रारंभ 6 जून को सुबह 2:15 बजे हुआ और इसका समापन 7 जून को सुबह 4:47 बजे होगा। व्रतधारी ब्रह्ममुहूर्त में उठकर स्नान कर व्रत का संकल्प लेते हैं और भगवान विष्णु की पूजा पीले वस्त्रों, तुलसी पत्र, दीप और भोग के साथ विधिपूर्वक करते हैं। विष्णु सहस्रनाम, भजन-कीर्तन और व्रत कथा का पाठ इस दिन विशेष फलदायी होता है। यह व्रत न केवल शरीर की तपस्या है, बल्कि आत्मा के जागरण का भी मार्ग है — यह हमें त्याग, अनुशासन और आध्यात्मिक एकाग्रता का संदेश देता है।
पौराणिक कथा के अनुसार, जब महाभारतकाल में भीमसेन अन्य एकादशियों का व्रत नहीं कर पाते थे, तो ऋषि व्यास ने उन्हें केवल निर्जला एकादशी रखने का सुझाव दिया। भीम ने कठिन प्रयास से यह उपवास किया, और उन्हें वर्ष भर की सभी एकादशियों का पुण्य प्राप्त हुआ। इसलिए इसे भीमसेनी एकादशी भी कहा जाता है।
धार्मिक स्थलों जैसे काशी, वृंदावन, द्वारका और हरिद्वार में आज विशेष आयोजन हो रहे हैं और मंदिरों में भक्तों की भारी भीड़ उमड़ी है। भजन-कीर्तन, सामूहिक पूजा और सेवा कार्यों से वातावरण भक्तिमय हो गया है। चिकित्सकों की सलाह है कि वृद्ध, बीमार या गर्भवती महिलाएं व्रत को स्वास्थ्य के अनुसार जल या फलाहार के साथ करें।
निर्जला एकादशी केवल एक उपवास नहीं, यह आत्मा को प्रभु से जोड़ने की एक अद्भुत साधना है, जिसमें तपस्या के साथ करुणा, सेवा और श्रद्धा का समावेश होता है। यह पर्व हर उस व्यक्ति के लिए एक अवसर है, जो जीवन में अध्यात्म और मोक्ष की ओर एक कदम बढ़ाना चाहता है।