हरिशंकर व्यास
झारखंड में आखिरकार नई सरकार बनी। चम्पई सोरेन की शपथ हुई। लेकिन उससे पहले झारखंड में चुनी हुई सरकार को अस्थिर करने, मुख्यमंत्री को गिरफ्तार करने और सरकार बनने से रोकने का जो ड्रामा 29 जनवरी से शुरू हुआ वह संविधान और कानून के राज दोनों का मजाक बनाने वाला था। यह मजाक एक फरवरी को 11 बजे रात तक चलता रहा। मुख्यमंत्री पद से हेमंत सोरेन के इस्तीफा देने और चम्पई सोरेन के नेता चुने जाने और राज्यपाल के सामने सरकार बनाने का दावा पेश करने के करीब 28 घंटे बाद राज्यपाल ने चम्पई सोरेन को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया।
सोचें, करीब 28 घंटे तक प्रदेश बिना किसी शासन के था! नक्सल प्रभावित राज्य झारखंड में मुख्यमंत्री नहीं था। उनका इस्तीफा हो चुका था। उसे स्वीकार करते हुए राज्यपाल ने उनको कार्यवाहक मुख्यमंत्री के तौर पर काम करने को नहीं कहा था क्योंकि उनकोकेंद्रीय जांच एजेंसी प्रवर्तन निदेशालय को गिरफ्तार करना था। सो, हेमंत का इस्तीफा स्वीकार हुआ और ईडी ने उनको हिरासत में लिया। सीएम के इस्तीफे के साथ ही मंत्रिमंडल बर्खास्त हो गया। यानी 31 जनवरी को रात आठ बजे से झारखंड में कोई सरकार नहीं बची और राष्ट्रपति शासन भी नहीं लगा। बिना मुख्यमंत्री, बिना मंत्रिमंडल और बिना राष्ट्रपति शासन के किसी राज्य के 24 घंटे से ज्यादा समय तक रहने का यह संभवत: पहला मामला था। झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राजद की ओर से 43 विधायकों का समर्थन पत्र सौंपने के बाद भी राज्यपाल ने सरकार बनाने का न्योता देने में 24 घंटे से ज्यादा का समय लिया।
सवाल है कि राज्यपाल विधानसभा में बहुमत के नेता को सरकार बनाने के लिए न्योता देने से कैसे रूके रह सकते हैं? अगर दूसरी पार्टी की ओर से भी सरकार बनाने का दावा किया जाता और दो दल बहुमत होने का दावा करते तब राज्यपाल के मन में संशय होता है और फिर वे अपने विवेक से फैसला करते कि किस पार्टी को बुलाएं। अगर विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी की बजाय छोटी पार्टी बहुमत का दावा करती तब भी राज्यपाल उसको सरकार बनाने के लिए बुलाने से पहले विचार विमर्श करते। लेकिन झारखंड में ऐसा कुछ भी नहीं था। विधानसभा की सबसे बड़ी पार्टी जेएमएम है, जिसके पास 47 विधायकों का समर्थन था। उसके मुख्यमंत्री को ईडी ने गिरफ्तार किया तो पार्टी ने नए नेता का चुनाव किया, जिसने सरकार बनाने का दावा पेश किया। विधानसभा की दूसरी बड़ी पार्टी भाजपा है लेकिन उसने सरकार बनाने का दावा नहीं पेश किया। फिर भी राज्यपाल ने 24 घंटे से ज्यादा समय लिया और वह भी तब जब राज्य में कोई सरकार नहीं थी।
संविधान और सुप्रीम कोर्ट के फैसले से इस मामले में स्थिति पूरी तरह से स्पष्ट है। राज्यपाल को यह जरूर देखना है कि जो दल बहुमत का दावा कर रहा है सचमुच उसके पास बहुमत है या नहीं लेकिन बहुमत का फैसला विधानसभा के फ्लोर पर ही होगा। एसआर बोम्मई केस में सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने यह फैसला दिया है और दशकों से यह फैसला प्रैक्टिस में है। झारखंड में कोई कारण नहीं दिख रहा था कि जेएमएम को सरकार बनाने से रोका जाए। एक तरफ राज्यपाल ने दावा पेश करने के बाद चम्पई सोरेन को सरकार बनाने का आमंत्रण देने में देरी की तो दूसरी ओर भाजपा के नेताओं ने प्रचार शुरू कर दिया कि हेमंत सोरेन के घर में एकता नहीं है और भाई व भाभी विरोध कर रहे हैं। यह भी कहा गया कि 18 विधायकों को चम्पई सोरेन के नाम पर आपत्ति है। जबकि दूसरी ओर जेएमएम, कांग्रेस और राजद ने वीडियो बना कर 43 विधायकों की गिनती कराई। लेकिन राज्यपाल की देरी और भाजपा के प्रचार की वजह से स्थिति ऐसी बन गई कि सत्तारूढ़ गठबंधन को तोड़-फोड़ का डर सताने लगा और इसी डर से विधायकों को हैदराबाद ले जाने की योजना बनी। राज्यपाल की देरी की वजह से पूरी व्यवस्था मजाक बन गई।
उससे पहले 29 जनवरी को ईडी ने जो किया वह भी कम हैरान करने वाला नहीं था। ईडी ने हेमंत सोरेन से 20 जनवरी को पूछताछ की थी और फिर नोटिस देकर कहा था कि 29 से 31 जनवरी के बीच वे पूछताछ का समय दें। लेकिन 29 जनवरी को ईडी उनको खोजते हुए दिल्ली के उनके आवास पर पहुंच गई। जब वे वहां नहीं मिले तो यह प्रचार किया गया कि सीएम लापता हो गए, जबकि सीएम की ओर से ईमेल के जरिए उसी दिन ईडी को बताया गया कि वे 31 जनवरी को एक बजे से पूछताछ के लिए उपलब्ध हैं। तब भी बिना किसी वारंट के ईडी ने उनके दिल्ली के घर पर छापेमारी की, गाड़ी जब्त की और 24 घंटे बाद बताया कि गाड़ी में से 36 लाख रुपए मिले हैं। इस तरह 31 जनवरी की पूछताछ से पहले ही ईडी ने अपनी मंशा जाहिर कर दी कि उसे हेमंत सोरेन को गिरफ्तार करना है। क्या इससे यह नहीं लग रहा है कि राजनीतिक कारणों से हेमंत को दिल्ली में गिरफ्तार करने का प्रयास हुआ ताकि वे पार्टी के विधायकों की बैठक न कर सकें और नेता नहीं चुनवा सकें और उसके बाद जो अफरा-तफरी मचे उसका फायदा भाजपा को मिले?
असल में झारखंड में भाजपा को 14 में से 12 लोकसभा सीटें मिली हैं लेकिन उसको लग रहा है कि जेएमएम, कांग्रेस और राजद का मजबूत गठबंधन उसे नुकसान पहुंचा सकता है। उसकी सीटें कम हो सकती हैं। इसलिए गठबंधन को कमजोर करने का प्रयास काफी समय से है। राज्य में सरकार को अस्थिर करने के कई प्रयास हुए लेकिन किसी राजनीतिक प्रयास में कामयाबी नहीं मिली तो अंतत: केंद्रीय एजेंसी के जरिए हेमंत सोरेन को हटाया गया और राज्यपाल कार्यालय का इस्तेमाल कर राज्य में संवैधानिक संकट खड़ा किया गया। सोचें, एक तरफ बिहार में नीतीश कुमार ने मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा दिया और भाजपा के समर्थन से सरकार बनाने का दावा पेश किया तो उनको आधे घंटे में सरकार बनाने के लिए बुला लिया गया, जबकि वहां सरकार के पास बहुमत से सिर्फ छह विधायक ज्यादा है तो विपक्ष के पास इतने ही विधायक कम हैं। फिर भी वहां राज्यपाल ने पलक झपकते ही शपथ करा दी लेकिन झारखंड में जहां विपक्ष यानी भाजपा के पास दूर दूर तक बहुमत नहीं है वहां बहुमत वाले गठबंधन को न्योता देने में 24 घंटे से ज्यादा का समय लगा।