सत्येन्द्र रंजन
हमारे पड़ोस में यह घटनाक्रम कुछ ज्यादा तीव्र रूप में और अधिक स्पष्ट में देखने को मिला है। हम उससे सबक ना लें, तो ऐसा हम अपने लिए जोखिम मोल लेते हुए करेंगे। इसलिए जो कांग्रेस नेता बांग्लादेश या श्रीलंका को एक चेतावनी बता रहे हैं, उन पर नाराज होने की जरूरत नहीं है। हुआ सिर्फ यह है कि अनगिनत लोगों के मन में घुमड़ती बातें उनकी जुब़ान पर आ गई हैं।
श्रीलंका की कहानी अलग नहीं थी। पाकिस्तान की कथा भी बहुत अलग नहीं है। अंतर सिर्फ यह है कि पहले दोनों देशों में सेना ने राजनीतिक टकराव के बीच तटस्थ रुख अपनाया, जबकि पाकिस्तान में सारे घटनाक्रम की सूत्रधार सेना बनी रही है।
दो साल पहले जो श्रीलंका में हुआ था, वह इस हफ्ते बांग्लादेश में दोहराया गया। श्रीलंका में ‘आती जनता’ को देख राष्ट्रपति गोटबया राजपक्षे सिंहासन छोड़ भागे थे। बांग्लादेश में यही हश्र प्रधानमंत्री शेख हसीना वाजेद का हुआ।
दोनों घटनाओं से हिली जमीन की कंपन अब नई दिल्ली तक पहुंच रही है। गौर कीजिए:
कांग्रेस नेता सलमान खुर्शीद ने एक पुस्तक लोकार्पण समारोह में कहा: ‘कश्मीर में सब कुछ सामान्य नजर आ सकता है। (चुनाव नतीजों के बाद यहां दिल्ली में) सब कुछ सामान्य दिख सकता है। लेकिन हकीकत यह है कि जमीन के नीचे कुछ हो रहा है। जो बांग्लादेश में हुआ, वह यहां भी हो सकता है।’
खुर्शीद की इस टिप्पणी के बारे में जब कांग्रेस सांसद शशि थरूर से पूछा गया, तो उनका जवाब था: ‘उनका क्या मतलब था, यह आपको उनसे ही पूछना होगा। दूसरों की टिप्पणी पर टिप्पणी करना मेरा काम नहीं है। लेकिन बांग्लादेश में हुए तर्जुबे का बड़ा संदेश यह है कि इसने लोकतंत्र, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष चुनाव, पारदर्शिता, व्यवस्था में लोगों की भागीदारी, लोकतंत्र की सभी संस्थाएं निष्पक्ष ढंग से काम करें इसे सुनिश्चित करने आदि का महत्त्व हमें बताया है। अगर यह सुनिश्चित हो, तो बांग्लादेश में जैसी घटनाओं के होने की कम गुंजाइश होगी।’
कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर और विस्तार में गए। उन्होंने ध्यान दिलाया कि बांग्लादेश में आर्थिक विकास के बावजूद बेरोजगारी काफी बढ़ गई थी। इसके अलावा वहां लोकतंत्र में खामियां उभरीं। पिछले दो आम चुनाव बिना विपक्ष की भागीदारी के कराए गए। अय्यर ने कहा कि बांग्लादेश की स्थिति की तुलना भारत से की जा सकती है। इस सिलसिले में उन्होंने गैर-सरकारी संस्था वोट फॉर डेमोक्रेसी की रिपोर्ट का जिक्र भी किया, जिसमें 79 लोकसभा सीटों के परिणाम पर संदेह जताया गया है। ये वे सीटें हैं, जहां मतदान खत्म होने के बाद जितना वोट प्रतिशत बताया गया था, बाद में उसमें काफी बढ़ोतरी कर दी गई। ये सारी सीटें भाजपा के खाते में गईं।)
मध्य प्रदेश में कांग्रेस नेता सज्जन सिंह वर्मा ने इंदौर नगर निगम में कथित घोटाले के खिलाफ एक विरोध सभा को संबोधित करते हुए कहा कि श्रीलंका और बांग्लादेश के बाद अब भारत की बारी है। उन्होंने कहा- ‘नरेंद्र मोदी जी याद रखिए। आपकी गलत नीतियों के कारण एक दिन लोग प्रधानमंत्री आवास में घुस कर वहां कब्जा जमा लेंगे। हाल में ऐसा श्रीलंका और बांग्लादेश में हुआ, अब भारत की बारी है।’
यह तो स्वाभाविक ही है कि भारतीय जनता पार्टी ने इन बयानों पर तीखी प्रतिक्रिया जताई है। उसके प्रवक्ताओं ने कांग्रेस पर देश में अफरातफरी फैलाने की कोशिश का आरोप लगाया है। साथ ही ऐसी बातें कहने वाले नेताओं पर देशद्रोह का मुकदमा चलाने की मांग की है। भारतीय जनता पार्टी से इसके अलावा किसी और तरह की प्रतिक्रिया की उम्मीद भी नहीं की जा सकती। क्योंकि उसके नेताओं से यह अपेक्षा तो नहीं रखी जा सकती कि वे किसी घटनाक्रम की तह तक जाएंगे और उसके कारणों की पड़ताल करते हुए आत्म-निरीक्षण करेंगे।
लेकिन देश के जो संवेदनशील और समझदार समूह हैं, उन्हें खासकर बांग्लादेश में हुए जन विद्रोह पर अवश्य ही खुले दिमाग से विचार करना चाहिए। आखिर बांग्लादेश के बारे में आर्थिक विकास के मार्ग पर तेजी से आगे बढ़ रहे देश की छवि बनी थी। यह समझा जाता था कि प्रधानमंत्री शेख हसीना चूंकि देश को खुशहाली के पथ पर ले गई हैं, इसलिए वे लोकप्रिय हैं- लोग उनकी राजनीतिक मनमानियों को सहने के लिए राजी हैं। कम-से-कम भारत में यह अंदाजा बहुत कम लोगों को होगा कि इस आर्थिक विकास और खुशहाली का स्वरूप इतना विषम और श्रमिक विरोधी रहा है कि लोगों के मन में एक ज्वालामुखी तैयार होने लगी थी।
श्रीलंका की कहानी इससे अलग नहीं थी। पाकिस्तान की कथा भी बहुत अलग नहीं है। श्रीलंका और बांग्लादेश तथा पाकिस्तान की हालत में अंतर सिर्फ यह है कि पहले दोनों देशों में सेना ने राजनीतिक टकराव के बीच तटस्थ रुख अपनाया, जबकि पाकिस्तान में सारे घटनाक्रम की सूत्रधार सेना बनी रही है। मई 2023 में लोगों के असंतोष का ज्वालामुखी वहां भी फटा था, परंतु सेना ने दमनकारी रुख अख्तियार कर उसे दबा दिया। फिर भी यह मान लेना अभी जल्दबाजी होगी कि वहां सामान्य स्थिति बहाल हो चुकी है।
सच्चाई यह है कि आज सामान्य स्थिति ढूंढ पाना उन लगभग तमाम देशों में कठिन हो सकता है, जहां जन असंतोष को नियंत्रित रखने के लिए चुनावी लोकतंत्र का सेफ्टी वॉल्व अपनाया गया है। जहां इस सेफ्टी वॉल्व की साख एक हद तक बनी हुई है, वहां अभी भी ज्वालामुखी विस्फोटक होने से बची हुई है। लेकिन इससे यह निष्कर्ष निकाल लेना उचित नहीं होगा कि वहां के लोग अपने आसपास की स्थितियों से संतुष्ट हैं।
लोग संतुष्ट इसलिए नहीं हैं, क्योंकि नव-उदारवाद के दौर में शासक वर्गों ने सिस्टम पर पूरा कब्जा जमा लिया है। चूंकि इस दौर में लोकतंत्र का सिर्फ आवरण बचा है, जबकि व्यवस्थाएं असल में धनिक-तंत्र या कुलीनतंत्र में तब्दील हो गई हैं। इस क्रम में शासक वर्गों ने आर्थिक वृद्धि और मानव विकास की परिभाषाएं ही बदल दी हैं। बदली परिभाषाओं का इस्तेमाल कर नैरेटिव्स तैयार किए गए हैं। उनसे लोगों को एक समय तक बहलाया गया। लेकिन इसकी एक सीमा थी। जब लोगों के अपने जीवन में आर्थिक या सामाजिक विकास के लक्षण नजऱ ना आएं, और जब उन्हें पूरी कहानी समझ में आने लगे, तो कभी ना कभी उनकी नाराजगी का विस्फोट होगा, इसे तय मान कर चला जाना चाहिए।
एशिया से अफ्रीका और लैटिन अमेरिका तक हाल में सडक़ों पर जो जन आक्रोश नजर आया है, उन सब में इस समान थीम के दर्शन किए जा सकते हैं। हमारे पड़ोस में यह घटनाक्रम कुछ ज्यादा तीव्र रूप में और अधिक स्पष्ट में देखने को मिला है। हम उससे सबक ना लें, तो ऐसा हम अपने लिए जोखिम मोल लेते हुए करेंगे। इसलिए जो कांग्रेस नेता बांग्लादेश या श्रीलंका को एक चेतावनी बता रहे हैं, उन पर नाराज होने की जरूरत नहीं है। हुआ सिर्फ यह है कि अनगिनत लोगों के मन में घुमड़ती बातें उनकी जुब़ान पर आ गई हैं।