सुभाष कुमार
यह जानते हुए भी कि प्रकृति के साथ इंसानी क्रूरता से उपजे ग्लोबल वार्मिंग संकट ने हमारे दरवाजे पर दस्तक दे दी है, हमारी सरकारें इस गंभीर चुनौती के मुकाबले को लेकर उदासीन नजर आती हैं। आज दुनिया में हर साल करोड़ों लोगों को अतिवृष्टि, अनावृष्टि, सूखे, बाढ़ व चक्रवातों की वजह से विस्थापन का दंश झेलना पड़ रहा है। वैश्विक स्तर पर खेतों में खाद्यान्न उत्पादकता में कमी आई है। साथ ही लाखों लोगों को अपने जीवन से हर साल हाथ धोना पड़ता है। लेकिन विकसित देशों द्वारा जलवायु परिवर्तन पर बड़े सम्मेलनों के आयोजन के अलावा इस संकट से निपटने के लिये युद्धस्तर पर कोई कोशिश होती नजर नहीं आती। सिर्फ जुबानी जमाखर्च के अलावा कोई ठोस पहल विकसित व विकासशील देशों के स्तर पर अब तक नहीं हुई है।
यही वजह है कि जलवायु परिवर्तन के घातक प्रभाव के प्रति सरकारी निष्क्रियता को चुनौती देने वाली स्विस वृद्ध महिलाओं द्वारा दायर याचिका पर यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय का फैसला सरकारों की जवाबदेही तय करने की दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह ऐतिहासिक आदेश इस बात पर बल देता है कि जलवायु परिवर्तन प्रभावों से सुरक्षा मांगना एक मौलिक मानव अधिकार है। निस्संदेह फैसला पूरे यूरोप के लिये एक नजीर होनी चाहिए। यह फैसला बताता है कि जलवायु संकट से निपटने की तत्काल जरूरत है। सरकारों को जलवायु अनुकूल नीतियों को लागू करने में दृढ़ इच्छाशक्ति दिखानी होगी। साथ ही सरकारों को जवाबदेह बनाने वाले सार्वजनिक दबाव व नागरिक सक्रियता को गंभीरता से लेने की जरूरत है। निस्संदेह नागरिकों की जागरूकता को कमतर नहीं आंका जा सकता। जाहिर बात है कि यदि लाखों लोगों के जीवन की गुणवत्ता व प्रत्याशा को जलवायु संकट बुरी तरह प्रभावित कर रहा हो तो सरकारें कैसे उदासीन बनी रह सकती हैं। तमाम अध्ययनों से पता चला है कि जलवायु परिवर्तन से जहां हमारी खाद्य शृंखला खतरे में है, वहीं तमाम तरह के नये-नये घातक रोग सामने आ रहे हैं। जिनसे निपटने के लिये तत्काल कदम उठाने की जरूरत है।
निश्चित रूप से यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय का फैसला पूरे विश्व के लिये मार्गदर्शक साबित हो सकता है। हाल ही में भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने एक फैसले में जलवायु परिवर्तन के प्रभाव से जीवन रक्षा को हमारे संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकारों की श्रेणी में रखा था। कोर्ट ने माना था कि जलवायु परिवर्तन का असर सीधा जीवन के अधिकार पर पड़ता है। अदालत ने एक फैसले में कहा था कि जलवायु परिवर्तन के हानिकारक प्रभावों से बचने के लिये नागरिकों के अधिकारों की दृष्टि से स्वच्छ ऊर्जा के उपयोग को प्राथमिकता देने पर बल दिया जाना चाहिए। निश्चित रूप से यूरोपीय मानवाधिकार न्यायालय का फैसला यूरोपीय व अमेरिकी देशों की जलवायु नीतियों को भी नया आकार प्रदान करने में सहायक होगा। यह फैसला जलवायु परिवर्तन और मानवाधिकारों के अंतर्संबंध को प्रदर्शित करते हुए बताता है कि पर्यावरणीय संकट के कारण हाशिये पर आने वाले समुदायों को तत्काल संरक्षण प्रदान करने की जरूरत है। पर्यावरण के स्तर पर उत्पन्न प्रतिकूल परिस्थितियां समाज में हाशिये पर रहने वाले समाजों को असंगत रूप से प्रभावित करती हैं।
साथ ही सामाजिक असमानता को बढ़ाती हैं। भारत के अंडमान और निकोबार द्वीप समूह में जनजातियों के सामने भोजन व पानी का संकट पैदा हो रहा है। इन उपेक्षित समुदायों पर जलवायु परिवर्तन के प्रभाव दूरगामी हो सकते हैं। निश्चित रूप से नवीकरणीय ऊर्जा को प्रोत्साहन से जलवायु परिवर्तन के दुष्प्रभावों को कम करने में खासी मदद मिल सकती है। वैकल्पिक ऊर्जा का प्रयोग न केवल जीवाश्म ईंधन पर निर्भरता को कम करता है बल्कि समाज के सभी वर्गों के लिये स्वच्छ और सस्ती ऊर्जा की पहुंच सुनिश्चित करके सामाजिक समानता को भी बढ़ावा देता है। निश्चित रूप जलवायु परिवर्तन प्रभावों पर अदालत का फैसला एक आदर्श बदलाव का संकेत भी है। जो जलवायु बदलावाें के प्रभावों से निपटने तथा भविष्य की पीढ़ियों के अधिकारों की रक्षा के लिये सरकारों को जवाबदेह बनाता है।