हाल के वर्षों में अवसाद, चिंता और तनाव से संबंधित स्वास्थ्य समस्याओं के बारे में अधिक चर्चा भी होने लगी है तथा समाधान के लिए संसाधनों में भी वृद्धि हुई है। लेकिन मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज की गलत अवधारणा तथा व्यक्तिगत हिचक जैसी बाधाएं अभी भी हैं। विशेषज्ञों का मानना है कि लगभग 40 प्रतिशत पुरुष ऐसी समस्याओं के बारे में खुलकर बातचीत नहीं करते। ऐसी स्थिति में वे चिकित्सकीय या मनोवैज्ञानिक परामर्श और मदद लेने में भी हिचकिचाते हैं। उन्हें लगता है कि लोग उनके संबंध में अनुचित राय बना सकते हैं। यह सामाजिक भय मानसिक स्वास्थ्य की समस्या को गंभीर बनाता जा रहा है। इसके अलावा, पुरुषों का यह सोच भी एक कारण है कि पुरुष को अपनी भावनात्मक स्थिति से स्वयं ही निपटना चाहिए तथा अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त नहीं करना चाहिए।
अध्ययनों में पाया गया है कि अवसादग्रस्त पुरुष के व्यवहार में आक्रामकता एवं गुस्सा अधिक होता है, जबकि स्त्रियों में उदासी या दुख की प्रवृत्ति अधिक होती है। उल्लेखनीय है कि चिकित्सा के मामले में स्त्रियों की उपेक्षा भी एक समस्या है। उनके शारीरिक स्वास्थ्य पर भी कम ध्यान दिया जाता है। ऐसे में स्वाभाविक है कि उनके मानसिक स्वास्थ्य की समस्याओं को भी अनदेखा कर दिया जाता है। इस स्थिति का परिणाम यह है कि आत्महत्या या आत्महत्या के प्रयासों की संख्या निरंतर बढ़ती जा रही है। भारत उन देशों में है, जहां आत्महत्या से मौतें सबसे अधिक होती हैं। समस्या की गंभीरता का अनुमान इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि हर पांच में से एक व्यक्ति किसी न किसी प्रकार की मानसिक स्वास्थ्य की समस्या से जूझ रहा है। आत्महत्या दर की बात करें, तो यह हर एक लाख लोगों में 10। 9 है।
समाधान के क्रम में सबसे महत्वपूर्ण है जागरूकता अभियान। हमें यह समझना होगा कि जिस प्रकार किसी बीमारी या शारीरिक समस्या की स्थिति में हम चिकित्सक के पास जाते हैं, उसी प्रकार मानसिक समस्या होने पर हमें मनोचिकित्सक या मनोवैज्ञानिक परामर्शदाता से संपर्क करना चाहिए। पुरुषों को यह धारणा छोड़ देनी चाहिए कि वे पुरुष होने के नाते अपने बूते समाधान हासिल कर लेंगे। स्त्रियों की समस्याओं पर भी समुचित देने की आवश्यकता है। हमारे देश में सरकार द्वारा संचालित केवल 43 मानसिक स्वास्थ्य संस्थान हैं। हमें 11,500 मनोचिकित्सकों की आवश्यकता है, पर उपलब्धता मात्र 3,800 की है। मनोवैज्ञानिकों, नर्सों तथा सामाजिक कार्यकर्ताओं की भी भारी कमी है। मानसिक स्वास्थ्य की पढ़ाई के लिए मेडिकल कॉलेजों में महज 1,022 सीटें ही हैं। चार लाख भारतीयों पर एक मनोचिकित्सक उपलब्ध होने की स्थिति में बेहतरी के साथ अन्य कर्मियों की संख्या बढ़ाने पर भी ध्यान दिया चाहिए।