क्या सच में देहरादून को विकास की आवश्यकता है?

 प्रकृति को कुचलकर किया जा रहा है विकास,  विनाश की ओर पहला क़दम

समीक्षा सिंह

देहरादून | एक ऐसा नगर जो कभी अपनी शुद्ध वायु , हरियाली और पहाड़ी संस्कृति के लिए प्रसिद्ध था, आज एक ऐसे मोड़ पर खड़ा है जहाँ  विकास के नाम पर प्रतिदिन कुछ न कुछ मूल्यवान खोता जा रहा है

प्रश्न केवल यह नहीं है कि विकास आवश्यक है या नहीं, बल्कि यह है कि किस प्रकार का विकास आवश्यक है?

सड़कों को चौड़ा करने के उद्देश्य से वर्षों पुराने वृक्षों को काटा जा रहा है, जिन्होंने इस नगर की वायु को स्वच्छ बनाए रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लोगों के घर तोड़े जा रहे हैं, उन्हें हटाया जा रहा है – यह सब इस नाम पर कि बाहर से आने वाले लोगों के लिए निवास और रोजगार की व्यवस्था की जा सके।

ऐसा ही एक मूल्यवान छेत्र सहस्त्रधारा, जो अपनी खूबसूरती और पानी के प्राकृतिक स्रोतों के लिए जाना जाता था, कुछ समय पहले एक बड़े पर्यावरणीय संकट का सामना कर चुका है। यह तब हुआ जब सरकार ने सहस्त्रधारा रोड को चौड़ा करने के लिए करीब 2,057 पेड़ों को काटने की अनुमति दी थी। इन पेड़ों में पीपल, बड़, आम, अमलतास और यूकेलिप्टस जैसे पेड़ शामिल थे, जो न सिर्फ यहां की जैव विविधता का हिस्सा थे, बल्कि मौसम को संतुलित रखने में भी बहुत जरूरी थे।

देहरादून में अनेक शैक्षिक संस्थानों की स्थापना हो चुकी है। प्रत्येक क्षेत्र में कोई न कोई निजी विश्वविद्यालय या महाविद्यालय खुल गया है। परन्तु उन संस्थानों से शिक्षित होने वाले युवाओं के लिए रोजगार कहाँ हैं?

नौकरी की कमी के कारण यहाँ का युवा वर्ग या तो अन्य नगरों की ओर पलायन कर रहा है अथवा मानसिक दबाव का शिकार हो रहा है। रोजगार के अवसरों का निर्माण केवल इमारतें खड़ी करने से नहीं होता – इसके लिए संतुलित आर्थिक योजना की आवश्यकता होती है।

पर्यटन को बढ़ावा देना कोई अनुचित कार्य नहीं है, किन्तु जब सड़कों की स्थिति जर्जर हो, यातायात प्रतिदिन का संकट बन चुका हो और मूलभूत सुविधाएँ चरमरा रही हों, तो ऐसे में किसी पर्यटक को क्या अनुभव प्राप्त होगा?

देहरादून और मसूरी जैसे नगरों को एक संतुलित एवं संवेदनशील अधोसंरचना की आवश्यकता है – जहाँ विकास और पर्यावरण दोनों को साथ लेकर चला जाए।

इस नगर की वायु गुणवत्ता दिन-प्रतिदिन विषैली होती जा रही है। वायु गुणवत्ता सूचकांक (AQI) उच्च होता जा रहा है। नदियाँ प्रदूषित हो चुकी हैं। वन, जो कभी इस क्षेत्र की शान हुआ करते थे, अब प्लॉटिंग और आवासीय योजनाओं की भेंट चढ़ रहे हैं।

देहरादून की अपनी एक शांत, पहाड़ी और समृद्ध सांस्कृतिक पहचान थी। आज उसकी जगह एक तेज़-रफ़्तार, उपभोक्तावादी संस्कृति ने ले ली है, जिसमें स्थानीय पहचान लुप्त होती जा रही है। हर नया मॉल, हर नया रेस्तरां इस नगर को एकरूप बना रहा है – परन्तु इसकी मौलिकता को धुंधला कर रहा है।

इस नगर को विकास की आवश्यकता है – परन्तु बिना सोचे-समझे नहीं। हमें ऐसे विकास की ओर अग्रसर होना होगा जो केवल इमारतें नहीं, एक बेहतर जीवन प्रदान करे। जो केवल वर्तमान नहीं, भविष्य को भी दृष्टिगत रखे। अन्यथा हम एक सुंदर नगर को केवल एक और प्रदूषित और अधिक भीड़-भाड़ वाला शहर बना देंगे।

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