क्या हमें सच में अपनी बात कहने की आज़ादी है?

मोनिका

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता हमारा मौलिक अधिकार है, जिसका अर्थ यह है कि यह हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है। लेकिन क्या वाकई हम इसे हर जगह इस्तेमाल कर पाते हैं? हर जगह – चाहे वो घर हो, ऑफिस हो या फिर कोई भी सामाजिक स्थान – एक superiority complex यानी “मैं बड़ा हूँ इसलिए मैं सही हूँ” वाली सोच देखने को मिलती है।

जब हम छोटे होते हैं, तब हम अपने माता-पिता की बात मानते हैं क्योंकि उस समय हमारे पास सही-गलत समझने की समझ नहीं होती। फिर धीरे-धीरे जब हम किशोरावस्था में पहुँचते हैं और सोचने-समझने लगते हैं, तो दुनिया हमें ये जताती है कि हम अभी भी बहुत छोटे हैं, और दुनियादारी की बातें हमारी समझ से बाहर हैं। इसी उम्र में जब हमें अपनी बात कहने की ज़रूरत महसूस होती है, तब हमें चुप रहने की सलाह दी जाती है – “बड़े हो जाओ, फिर कहना।”

बड़े होकर जब हम ऑफिस में पहुँचते हैं, तो हालात अलग नहीं होते। यहाँ भी बिना कुछ कहे, बिना अपनी राय रखे, हमें अपने वरिष्ठ अधिकारियों की बात माननी पड़ती है – चाहे वो सही हों या गलत। यहाँ सवाल उठता है – क्या हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता वहीं खत्म हो जाती है?

हमें समझाया जाता है कि अनुच्छेद 19 के अंतर्गत हमें अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्राप्त है, और उसी अनुच्छेद के उपखंड 2 के तहत इस स्वतंत्रता पर कुछ सीमाएँ भी लगाई गई हैं – जैसे कि हम नफ़रत, हिंसा या समाज में विद्वेष फैलाने वाली बातों को बढ़ावा नहीं दे सकते। ये बातें स्पष्ट हैं और इन पर सवाल नहीं उठाए जा सकते।

लेकिन मैं इस ब्लॉग में किसी बड़े राजनीतिक या सामाजिक मुद्दे पर बात नहीं कर रही हूँ। मैं तो उन रोजमर्रा की छोटी-छोटी बातों पर बात कर रही हूँ जहाँ एक आम इंसान अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैसे इस्तेमाल करता है और कहाँ पर उसे रोक देता है – उस अनकहे दायरे की तलाश में हूँ जहाँ हर कोई कभी न कभी खुद को पाता है।

बहुत से लोग खुद को “साफगो” या “बोल्ड” कहते हैं – जो जो भी कहना है, वो मुंह पर कह देते हैं। लेकिन कई बार ऐसा होता है जब हमें अपनी ये “साफगोई” छोड़नी पड़ती है, और सामने वाले की बात सुननी पड़ती है – चाहे वो गलत ही क्यों न हो। ऐसी स्थिति में एक कहावत याद आती है – “कभी-कभी गधे को भी बाप बनाना पड़ता है।” उस पल में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता कहीं पीछे छूट जाती है। आप जानते हैं कि आप सही हैं, फिर भी आप चुप रहना चुनते हैं – सिर्फ इसलिए क्योंकि उस समय बोलने से बात और बिगड़ सकती थी।

मैं जानती हूँ कि चुप रहना एक स्वैच्छिक निर्णय होता है, लेकिन फिर भी सवाल वहीं का वहीं है – क्या हमारी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता सच में हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है, अगर हमें हर मोड़ पर उसे छोड़ना पड़े?

कई बार हम खुद से सवाल करते हैं – क्या मुझे बोल देना चाहिए था? मैं तो सही थी फिर भी क्यों चुप रही? अगर बोलती तो शायद उसे बुरा लग जाता… और यही पछतावा हमारे साथ रह जाता है।

इस ब्लॉग में मैं बस यही समझने की कोशिश कर रही हूँ कि ज़िंदगी के बहुत बुनियादी स्तर पर हम अपनी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को कैसे जीते हैं। हम कौन-सी सीमाएँ खुद तय करते हैं, और किन सीमाओं को समाज हम पर थोप देता है। और अंत में सवाल यही रहता है – क्या हमने सच में अपनी बात कह दी? या फिर हम फिर से चुप रह गए…

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back To Top