बलबीर पुंज
यह विचित्र है कि अपराधियों पर सख्त कार्रवाई करने या कानून-व्यस्था दुरुस्त करने के बजाय मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद सडक़ पर उतरकर धरने-प्रदर्शन करने में व्यस्त है। 16 अगस्त को कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने मंत्रियों, विधायकों और सांसदों के साथ मिलकर विरोध-मार्च निकाला था। प्रश्न है कि इस पूरे मामले में त्वरित, पर्याप्त और संतोषजनक कार्रवाई नहीं करने का जिम्मेदार कौन है?
बेशक, बीते 9 अगस्त को कोलकाता में महिला डॉक्टर के साथ हुई हैवानियत अक्षम्य और क्रूरतम अपराध है। सामने आई पोस्टमार्टम रिपोर्ट और उसमें दिखता वहशीपन, मानवीय संवेदना को भीतर से झकझोर देता है। परंतु इसके बाद जिस तरह का घटनाक्रम सामने आया, वह आमजन का व्यवस्था से ही विश्वास उठा देता है। रोंगटे खड़े कर देने वाली बर्बरता की शिकार महिला डॉक्टर (मृत) को न्याय दिलाने हेतु धरना-प्रदर्शन कर अन्य डॉक्टरों पर 14 अगस्त को ट्रकों में भरकर आई हजारों की भीड़ टूट पड़ी। बकौल मीडिया रिपोर्ट चश्मदीद प्रदर्शनकारी डॉक्टरों ने बताया कि हमलावर अस्पताल में तोडफ़ोड़ और मरीज, तीमारदारों, डॉक्टर-नर्सों आदि से मारपीट करते हुए उस जगह जाना चाहते थे, जहां महिला डॉक्टर को बलात्कार के बाद मौत के घाट उतारा दिया गया था। वे घटनास्थल से साक्ष्यों को खत्म करना चाहते थे। हैरानी की बात है कि यह सब धरनास्थल पर तैनात पुलिसबल की मौजूदगी में हो रहा था।
प्रदर्शन कर रहे डॉक्टरों पर हमले के जिन आरोपियों को गिरफ्तार किया गया है, उनमें अधिकांश सत्तारुढ़ तृणमूल कांग्रेस के कारकुन थे। यही नहीं, जो लोग सोशल मीडिया पर मृत पीडि़ता को इंसाफ दिलाने और अपराधी पर सख्त कार्रवाई करने के लिए मुखर होकर आवाज उठा रहे है, उन्हें मुख्यमंत्री और सत्तारुढ़ तृणमूल मुखिया ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली सरकार का कोपभाजन झेलना पड़ रहा है। जब 18 अगस्त को कोलकाता में बलात्कार-हत्या के खिलाफ फुटबॉल समर्थकों ने शांतिपूर्वक प्रदर्शन किया, तब पुलिस ने उनपर लाठीचार्ज कर दिया। मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की तृणमूल ने अपने नेता शांतनु सेन को इसलिए पार्टी प्रवक्ता के पद से हटा दिया, क्योंकि वे मृत महिला डॉक्टर को न्याय दिलाने हेतु डॉक्टरों के धरना-प्रदर्शन में शामिल हुए थे।
यही नहीं, बंगाल पुलिस ने तृणमूल के राज्यसभा सांसद सुखेंदु शेखर रॉय को इसलिए नोटिस भेज दिया, क्योंकि उन्होंने महिला डॉक्टर से बलात्कार-हत्या मामले में सीबीआई से राज्य के पुलिस आयुक्त और मेडिकल कॉलेज के पूर्व प्रिंसिपल से पूछताछ करने की मुखर मांग की थी। वास्तव में, यह अराजक मंजर बताता है कि प.बंगाल में अपराधी किस तरह बेखौफ होकर और सत्तारुढ़ तृणमूल के संरक्षण में अपनी गतिविधियों को अंजाम दे रहे है, तो इसके खिलाफ आवाज उठाने वालों को ममता नीत प्रशासन हर तरह से दंडित करने का प्रयास कर रहा है। इस तरह की अतिरंजित स्थिति अक्सर हिंदी फिल्मों में देखने को मिलती है।
इस घटनाक्रम में किसे प्रदर्शन करने का अधिकार है, यह भी स्वयं ममता सरकार तय कर रही है। यह विचित्र है कि अपराधियों पर सख्त कार्रवाई करने या कानून-व्यस्था दुरुस्त करने के बजाय मुख्यमंत्री ममता बनर्जी खुद सडक़ पर उतरकर धरने-प्रदर्शन करने में व्यस्त है। 16 अगस्त को कोलकाता में मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने अपने मंत्रियों, विधायकों और सांसदों के साथ मिलकर विरोध-मार्च निकाला था। प्रश्न है कि इस पूरे मामले में त्वरित, पर्याप्त और संतोषजनक कार्रवाई नहीं करने का जिम्मेदार कौन है? स्वाभाविक तौर पर इसकी एकमात्र उत्तरादायी स्वयं मुख्यमंत्री ममता बनर्जी है, जिनके अधीन राज्य का गृह मंत्रालय और स्वास्थ्य विभाग भी आता है। ऐसा प्रतीत होता है कि जैसे एक आक्रामक नेता के रूप ममता बनर्जी प.बंगाल में अपने मुख्यमंत्री संस्करण के खिलाफ प्रदर्शन कर रही है।
प.बंगाल में कानून-व्यवस्था को लेकर ममता सरकार किस प्रकार विफल दिखती है, वह अस्पताल में तोडफ़ोड़, डॉक्टरों से मारपीट और उसपर कलकत्ता उच्च न्यायालय की तीखी टिप्पणी से स्पष्ट हो जाता है। अदालत के अनुसार, “आमतौर पर पुलिस के पास खुफिया शाखा होती है। हनुमान जयंती पर भी ऐसी ही घटना हुई। यदि 7000 लोग इक_ा हो जाते हैं, तो यह मानना मुश्किल होता कि राज्य पुलिस को पता नहीं था। जब इतना हंगामा हो रहा हो तो आपको पूरे इलाके की घेराबंदी कर देनी चाहिए थी। यह राज्य मशीनरी की पूरी तरह से विफलता है।” सर्वोच्च न्यायालय ने भी मामले का स्वत: संज्ञान लेकर प.बंगाल पुलिस और अस्पताल प्रशासन की कार्यपद्धति पर सवाल उठाया है।
यह पहली बार नहीं है, जब अपने प्रदेश की कानून-व्यवस्था को लेकर मुख्यमंत्री ही प्रदर्शन कर रहा हो। इससे पहले एक अन्य घटनाक्रम पर पश्चिम बंगाल के तीसरे मुख्यमंत्री और बांग्ला कांग्रेस के संस्थापक अजय मुखर्जी ने भी ऐसा ही किया था। तब 1969 में कांग्रेस को सत्ता से कैसे भी दूर रखने के लिए अजय मुखर्जी ने वामपंथी दलों के साथ मिलकर सरकार बनाई थी। परंतु वामपंथियों की स्वाभाविक अराजक और हिंसक शैली पर अजय मुखर्जी ने अपनी सरकार के वाम-सहयोगियों के खिलाफ ही सत्याग्रह शुरू कर दिया था। इस अजीब स्थिति के बाद कालांतर में पश्चिम बंगाल में राष्ट्रपति शासन लगा, कांग्रेस कभी राज्य की सत्ता में नहीं लौट पाई और 34 वर्षों (1977-2011) के वामपंथी राज में सार्वजनिक जीवन में हिंसा ने अहम मुकाम हासिल कर लिया। तब से प.बंगाल में ‘राजनीतिक संवाद’ के बजाय वैचारिक-राजनीतिक विरोधियों की हत्या और दमन ‘पसंदीदा उपक्रम’ बन गया है। योजनाबद्ध तरीके से तत्कालीन सत्तारुढ़ वामपंथियों ने स्थानीय गुंडो, जिहादियों और अराजक तत्वों को संरक्षण दिया और फिर उन्हीं के माध्यम से राजनीतिक-वैचारिक विरोधियों (आरएसएस-भाजपा सहित) को नियंत्रित या प्रताडि़त करना प्रारंभ कर दिया।
कालांतर में विरोध-प्रदर्शनों की राजनीति करके ममता बनर्जी ने प.बंगाल में वाम-किले को भेद दिया। आशा थी कि वामपंथियों से मुक्ति के बाद प्रदेश में गुंडों की सल्तनत ना होकर सुशासन और कानून-लोकतंत्र का शासन होगा। परंतु बीते 13 वर्षों में यह स्थिति पहले से और अधिक रक्तरंजित हो गई है। ऐसा इसलिए हुआ, क्योंकि वामपंथी शासन में जो अपराधी समूह और जिहादी मार्क्सवादी केंचुली पहनकर घूमा करते थे, वे रातोंरात तृणमूल के कार्यकर्ता-नेता बन गए और उन्होंने वैचारिक कारणों से विरोधियों के हिंसक दमन को जारी रखा।
पहले 1980-90 के दशक में कश्मीर में हिंदुओं पर मजहबी जुल्म, तो अब प.बंगाल का घटनाक्रम स्थापित करता है कि कानून और संविधान महज कागज में उकेरे गए शब्दों से अधिक कुछ भी नहीं है। इन सबके मायने तभी है, जब सत्ता में बैठे लोगों में इनके इकबाल की रक्षा और सम्मान करने की इच्छाशक्ति के साथ सामर्थ्य भी हो।