डी डी पांडेय जैसे आंदोलनकारी की जगह भरना मुश्किल , आंदोलनकारियो में दौड़ी शोक की लहर

मथुरा( सतीश मुखिया) : उत्तराखंड राज्य आंदोलन के शेर दिल योद्धा डी.डी.पांडेय (दीन दयाल पांडेय) का असामयिक निधन राज्य आंदोलनकारियों और उत्तराखंड समाज के लिए बहुत बड़ी क्षति है। मेरा डी डी पांडे के साथ वैसे तो कोई खास परिचय नहीं रहा लेकिन आंदोलनों के दिनो मे हमारे बड़े भाई दाताराम चमोली, वरिष्ठ पत्रकार और मित्र श्याम भट्ट के साथ में डीडी पांडे जी के साथ आंदोलन की धरती जंतर मंतर रोड, नई दिल्ली और मंडी हाउस पर कई बार मिलना हुआ। उनमें एक अलग ही बात थी वह हर किसी को अपना दोस्त बना लेते थे। उनमें वह सब कुछ था जो कि एक आंदोलनकारी में होना चाहिए हमेशा वह देश के लिए कुछ करना चाहते थे मेरी उनसे आखिरी मुलाकात है कोरोना से पहले हुई थी ।

पांडेय बहुत छोटी उम्र में ही उत्तराखंड के जन आंदोलनों से जुड़ गये थे। जन आंदोलनों में सक्रिय और साहसिक भूमिका निभाते हुए उन्हें कई बार पुलिस के डंडे खाने पड़े और जेल यात्राएँ करनी पड़ी। राज्य आंदोलन के दौरान आंदोलनकारियों द्वारा जब अंतरराष्ट्रीय हिमालयन कार रैली का विरोध किया गया तो इस कार्यक्रम को सफल बनाने के लिए पांडेय ने जिस साहस का परिचय दिया उसके चलते पुलिस ने उनके सिर को डंडे मारकर बुरी तरह जख्मी कर दिया था। उत्तराखंड में जमीनों की लड़ाई को लेकर चले ऐतिहासिक कोटखर्रा आंदोलन में वह छह महीने से अधिक समय तक विभिन्न जेलों में बंद रहे। साथी आंदोलनकारी बताते हैं कि आंदोलन के दौरान पुलिस-प्रशासन की गाडियाँ उन्हें घसीटती हुई आधा किलोमीटर तक ले गई, लेकिन इससे उनका साहस और बढ़ा।

1994 में जंतर-मंतर से चले राज्य आंदोलन की ज्योति जलाने से लेकर राज्य प्राप्ति तक वे अहम भूमिका में रहे। वे एक ओजस्वी वक्ता के साथ-साथ कुशल संगठनकर्ता भी थे। आंदोलन के किसी भी धरने-प्रदर्शन या रैली को सफल बनाने में जी जान से जुटे रहते थे। उनके भीतर हमेशा अपने पहाड़ के लिए कुछ करने की ज्वाला धधकती रहती थी और यह ज्वाला जीवन के अंतिम समय तक धधकती रही।

पांडेय आंदोलन या जनहित में अपनी बात को बिना किसी लाग-लपेट के स्पष्ट रूप से बोल देते थे। मुझे याद है कि राज्य आंदोलन के दौरान जब बसपा के एक नेता को संयुक्त संघर्ष समिति में शामिल किया गया था तो उसके बाद यूपी भवन में आंदोलनकारियों की एक बैठक में उन्होंने संयुक्त संघर्ष समिति के अध्यक्ष काशी सिंह ऐरी के सम्मुख तीव्र आक्रोश व्यक्त किया था कि आंदोलन की मूलधारा के लोगों को ही समिति में रहना चाहिए। उन्होंने कहा था कि ‘आज आपने किसी बसपा नेता को समिति में शामिल किया है, कल किसी और को शामिल कर देंगे और परसों हमें अखबारों से पता चलेगा कि समिति में तो मुलायम सिंह को भी शामिल कर दिया गया है?’

राज्य आंदोलन के दौरान जब उत्तराखंड पत्रकार परिषद की एक गोष्ठी में भाजपा और कांग्रेस के बड़े नेता शामिल होने आए थे तो उस वक्त भी पांडेय ने ही सबसे पहले आवाज उठाई थी कि राज्य में मुलायम सिंह की सरकार के रहते आंदोलनकारियों पर अमानवीय जुल्म हो रहे हैं इसलिए कांग्रेस को तत्काल मुलायम सिंह सरकार से समर्थन वापस लेना चाहिए। उन्होंने भाजपा नेताओं को भी जमकर लताड़ा था कि उत्तराखंड के बजाय उत्तरांचल का राग न अलापें। इस साहसिक विरोध-प्रदर्शन ने राष्ट्रीय मीडिया के तमाम छायाकारों का ध्यान आकर्षित किया था और अगले दिन तमाम अखबारों में पांडेय के फोटो देखने को मिले। खैर, कहाँ तक उनकी साहसिक भूमिका का जिक्र करें? उनके जैसे शेर दिल आंदोलनकारी कभी-कभार ही जन्म लेते हैं।

पांडेय से मेरी दोस्ती करीब तीस साल की रही, लेकिन उन्होंने हमेशा मुझे ‘भाई साहब’ कहकर संबोधित किया। मुझे यह अटपटा लगता था क्योंकि मैं उन्हें दोस्त मानता था, लेकिन वे कहा करते थे कि ‘मैं आपको भाई साहब इसलिए कहता हूँ कि आपकी लेखनी और शारीरिक क्षमता उत्तराखंड के लिए काम आई है।’ वे राज्य के लिए काम करने वाले हर आदमी को सम्मान देते थे। मुझे वे इसलिए भी अच्छे लगते थे कि वैचारिक मतभेद उनके भले ही किसी से हो जाते थे, लेकिन मनभेद कभी किसी से नहीं हुए। वैचारिक विषय पर किसी के लिए तीखी भाषा उन्होंने अवश्य बोल दी हो, लेकिन किसी के प्रति कभी भी उनका मन मैला नहीं हुआ। वे बहुत सरल और साफ दिल के इंसान थे। यदि राह चलते समय किसी अनजान आदमी के साथ भी अन्याय होते देखते थे, तो वे तत्काल विरोध कर देते थे। उनसे चुप नहीं रहा जाता था।

अभी 21 अप्रैल को वे अपने किसी काम से नोएडा आए तो मुझे फोन कर दिया कि भाई साहब आपके ऑफिस के नजदीक एक मीटिंग में आया हूँ ,थोड़ा समय निकालकर मिल जाएंगे तो मुझे अच्छा लगेगा। मैं उनकी बात को अस्वीकार नहीं कर पाया और लंच के वक्त समय निकालकर उनसे मिला। उन्हें बहुत प्रसन्नता हुई, परंतु मुझे भला क्या पता था कि यह उनसे अंतिम मुलाकात साबित होगी क्योंकि वे तो भविष्य के लिए निरंतर मुलाकातें करते रहने का वचन लेने आए थे। वे मुझसे वचन लेने आए थे कि ‘भाई साहब अब राज्य को बचाने की और आंदोलनकारियों को सम्मान दिलाने की निर्णायक लड़ाई शुरू करने जा रहा हूँ। इसमें आपका सहयोग मिलता रहना चाहिए।’ मैंने उन्हें समझाना चाहा कि अब स्थितियाँ संघर्ष के लिए साथ नहीं दे पा रही हैं, लिहाजा नई पीढ़ी को आगे आकर अपने राज्य की लड़ाई लड़नी होगी। इस पर उन्होंने मुझे यह कहकर निरूत्तर कर दिया कि नई पीढ़ी का मार्गदर्शन भी तो हमें ही करना होगा भाई साहब! उन्होंने कहा कि ‘मेरे मन में न तो एमपी बनने की कोई लालसा है और न एमएलए बनने की, मैं तो कभी चुनाव भी नहीं लडूँगा, लेकिन उत्तराखंड हमारा है। इसे बर्बाद नहीं होने देंगे। इसके लिए जीवन के अंतिम क्षण तक लड़ता रहूँगा।’

पांडेय वास्तव में आप अपनी मातृभूमि के लिए जीवन की अंतिम साँस तक लड़ते रहे। आप जैसे आंदोलनकारी का होना उत्तराखंड के लिए गर्व की बात रहेगी। जब-जब जन आंदोलनों की बात होगी तब-तब आंदोलनकारियों द्वारा आपको याद किया जाएगा। हम आंदोलनकारी लोग उन जैसे संघर्ष शील आंदोलनकारी को कभी नहीं भुला पाएंगे।हम लोग उनको सादर श्रद्धा सुमन अर्पित करते है।
( यह लेख श्री दाताराम चमोली, वरिष्ठ पत्रकार के सोशल मीडिया के सहयोग से)

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