ऑनलाइन की दुनिया और अकेलापन !
कमलेश भट्ट ‘कमल’
‘आफिस बिल्ड़िंग में पहुंच चुकी हूं। कुछ ही देर में गेट खुलने वाला है, फिर अंदर बैठ कर इंतजार करूंगी’ दोस्त ने चैन की सांस लेते हुए यह मेसेज दिखाया जो अभी-अभी उसके मोबाइल पर आया था। दरअसल उसकी बेटी एक यूनिवर्सिटी का एंट्रेंस टेस्ट देने गई है। इस मेसेज से उसने इतमीनान की सांस ली, यह सब एक ही शहर में हो रहा है और उसे घर से निकलने से लेकर संदेश मिलने तक बमुश्किल से 50 मिनट ही हुए।
इसी तरह आज के दौर के युवा और बच्चे अपने शहर और देश ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया को ईमेल, वॉट्सऐप, विडियो कॉल वगैरह के जरिए नाप रहे हैं और उनके साथ हम भी हर पल उनसे जुड़े रहते हैं। और बच्चे ही क्यों सारे दोस्त-मित्र, रिश्तेदार सभी फेसबुक, वॉहट्सऐप, ट्विटर आदि के जरिए एक दूसरे से जुड़े रहते हैं। लेकिन फिर इसमें कब, क्यों, कैसे दूरी आ रही हंै हमारे बीच ?
सुबह, दोपहर, शाम एक दूसरे को वॉट्सऐप, फेसबुक पर झूठे-सच्चे संदेश फॉरवर्ड होते रहने के बावजूद एक-दूसरे के सुख-दुख में मन से शामिल नहीं होते। हम सब दूसरों से अपनी जिंदगी का चमचमाता हिस्सा तो शेयर करते हैं लेकिन गम जब्त करते हैं। बच्चे ने ड्राइंग अच्छी बनाई, यह तस्वीर समेत दिखाते हैं लेकिन गणित वह ठीक से नहीं समझ पाता और इसलिए टीचर ने बुलाकर शिकायत की, यह नहीं बताते। यह भरोसा नहीं है कि इस बात से हमारा फ्रेंड सर्कल कैसे रिऐक्ट करेगा। डरते हैं कि वे हमें और हमारे बच्चे को मामूली या सामान्य न मान ले। आज की दुनिया में सामान्य व्यक्ति तो कहीं भी जी सकता है लेकिन हमें तो असाधारण बनना है, असाधारण दिखना है।
इस असाधारण दिखने की यही चाहत या मजबूरी हमें न केवल सबसे अलग किए हुए है बल्कि अघोषित होड़ में भी डाले है। हम सबसे जुड़े तो रहते हैं और सफलता की उनकी कहानियों पर नजर रखते हुए उनकी असलियत समझने की कोशिश भी करते रहते हैं लेकिन इसके साथ ही अपनी कहानियां सुनाते हुए अपनी असलियत छुपाने की चालाकी भी करते रहते हैं।
इसका नतीजा यह निकलता है कि इस कनेक्टेड बनावटी दिखावे की दुनिया में अपने मन की सोचों पर अपनी असुरक्षा और आशंकाओं से घिरे हुये बिलकुल अकेला जीवन बिताने को मजबूर हैं।